भगवती व भगवान की प्रवास भूमि रही है मिथिला - Nai Ummid

भगवती व भगवान की प्रवास भूमि रही है मिथिला


भोला झा, शिक्षाविद् :



हिमालय और गंगा नदी की तलहटी के बीच स्थित प्राचीन भारत में था “विदेह राज्य” जो अपने विशिष्ट संस्कृति के लिए मिथिला राज्य के रूप में जाना जाता है। मिथिला की प्राचीन भूभाग आज भारत व नेपाल देशों की आसन्न भू-भागों में विभाजीत है। मिथिला महाकाव्य रामायण के अनुसार विदेह मिथिला राज्य की राजधानी थी। आधुनिक समय में यह शहर नेपाल के धनुषा जिला में जनकपुर के रूप में पहचाना जाता है। विदेह या मिथिला राज्य पूर्व में कोसी, पश्चिम में गंडक, उत्तर में हिमालय और दक्षिण में गंगा से घिरा माना जाता रहा है। आज से करीब 2800 वर्ष पहले लिखे गए शतपथ ब्राह्मण ग्रन्थ (1l4l1l10-19) के अनुसार विदेह/मिथिला में यव नामक आर्य राजा अथवा सेनापति वैश्वानर अग्नि के साथ अपने पुरोहित ऋषि गौतम के मार्गदर्शन में कौशल (वर्तमान में सीतापुर,गौंडा) और काशी देशों के स्थापित राज्य के उत्तर से पूर्व की ओर सदानीरा (सप्तगण्डकी, नारायणी) नदी तक पहुंचे थे। यहां उन्होंने विदेह/मिथिला राज्य की स्थापना की। भारतीय वैज्ञानिकों (इसरो व भाभा परमाणु शोध केंद्र) के खोज के आधार पर इस कालखंड को आज से तकरीबन 4 हजार से 42 सौ वर्ष पहले का मान सकते हैं। निमि, मिथिला के प्रथम राजा थे। वे मनु के पौत्र तथा इक्ष्वाकु के पुत्र थे।निमि ने वसिष्ठ को ऋत्विक बनाना चाहा पर वसिष्ठ खाली नहीं थे। दूसरों के आचार्यत्व में निमि ने यज्ञ कराना आरंभ किया। वसिष्ठ ने इससे क्रुद्ध होकर निमि के देह का पात होने का शाप दे दिया। इस देह के मंथन से जनक की उत्पत्ति हुई और निमि स्वयं विदेह (देह रहित) होकर प्राणियों की पलकों में निवास करने लगे। संस्कृत में 'निमि' का अर्थ 'पलक' होता है। तत्पश्चात निमि के उत्तराधिकारी अपने नाम के साथ जनक उपाधि रखने लगे। जगत जननी मां सीता के पिता सिरध्वज जनक थे। गरुड़ पुराण के अनुसार इस पृथ्वी पर अयोध्या, मथुरा,काशी,कांची, अवंतिका,पुरी आदि का विशेष महत्व है। महामाया जगज्जननी जनकनंदिनी जानकी जी के आविर्भाव की भूमि पुनौराधाम सीतामढ़ी है। विदेह /मिथिला में अकाल से निजात दिलाने के लिए राजा सिरध्वज जनक ने जब सोने की सीत से मिट्टी जोती थी तो उन्हें दिव्य संदुक में सीता मिलीं। इस तरह राजा जनक की पुत्री सीता कहलाई। जगत जननी मां जानकी की मायके मिथिला होने पर मिथिलावासी को अतिरेक गर्व है। भगवान राम का विवाह मां जानकी के साथ होना व व उनके गुरु विश्वामित्र व अनुज संग मिथिला में महीनों प्रवास व बहुत सी लीलाएं जग प्रसिद्ध है। अहिल्या के उद्धार से लेकर, ब्रह्म हत्या दोषमुक्ति के लिए मुंगेर में मुद्गल ऋषि के आश्रम में आगमन और पिता दशरथ के पिंडदान करने गयाजी आने का उल्लेख विभिन्न ग्रंथों में वर्णित है ।  कुल मिलाकर मिथिला को श्रीराम की कर्मभूमि भी कहा जा सकता है। धर्म, अर्थ,काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों में नित्य एवं निरतिशय होने से परम पुरुषार्थ मोक्ष का प्रापक बह्मज्ञान मिथिला की राजधानी जनकपुर/विदेह नगर में रहने वाले महाराज जनक के पास ही था, इसकी पुष्टि बृहदारण्यक उपनिषद् में लिखित श्लोक से होती है - ' जनको जनक इति ब्रुवन्तो वैधावन्ति ब्रह्मज्ञानार्थमिति शेष: । ब्रह्मज्ञान के लिए 'जनक जनक ' चिल्लाते हुए लोग मिथिला की ओर दौड़ते हैं। मिथिला संस्कृति का विस्तार और प्रभाव तथा संबंध देवघाट (त्रिवेणी धाम) तक देखा जाता है। नेपाल के अत्यंत महत्वपूर्ण धार्मिक स्थलों में से एक है त्रिवेणी धाम जिसे हरिहर क्षेत्र भी कहा जाता है। इस स्थान का महत्व इसलिए भी है क्योंकि यहां शालिग्राम पाया जाता है। आदिकवि बाल्मीकि का पवित्र आध्यात्मिक धाम यहां अवस्थित है जो यह दर्शाता है कि मिथिला का सम्बन्ध त्रिवेणी धाम से भी है। माना जाता है कि बाल्मीकि ने आद्यकाव्य रामायण की रचना यहीं की थी। सीता को दूसरा वनवास यही मिला व लव एवं कुश का जन्म व शिक्षादीक्षा यहीं हुई थी। 

मिथिला का महत्व इस बात से भी है कि राम के परिवार से ही नहीं , कृष्ण के परिवार से भी मिथिला का अभिन्न संबंध रहा है। विष्णु पुराण के अनुसार, स्यमन्तक मणि को लेकर कृष्ण एवं बलभद्र(बलराम) में विवाद हुआ था। यह मणि शतधन्वा के पास थी, जो मिथिला में ही एक वन में कृष्ण के चक्र से मारा गया था। बलभद्र ने कृष्ण को अर्थलोलुप मानते हुए कृष्ण से और द्वारका से संबंध तोड़ लिया।वे मिथिला चले गए। वहां विदेहराज जनक ने उनका बहुत सम्मान किया और बलभद्र विदेह नगर में ही रहने लगे। पुराण के अनुसार दुर्योधन ने गदायुद्ध विदेह नगर में ही बलभद्र से इसी प्रवास के दौरान सीखा था। विद्यापति का जन्म मिथिला के वर्तमान मधुबनी जिला के बिस्फी गाँव में एक शैव ब्राह्मण परिवार में हुआ था। विद्यापति ("ज्ञान का स्वामी") नाम दो संस्कृत शब्दों, विद्या ("ज्ञान") और पति से लिया गया है।

वह गणपति ठाकुर के पुत्र थे, एक मैथिल ब्राह्मण जिसे शिव का बहुत बड़ा भक्त कहा जाता है। वह तिरहुत के शासक राजा गणेश्वर के दरबार में एक पुरोहित थे।  उनके परदादा देवादित्य ठाकुर सहित उनके कई निकट पूर्वज अपने आप में उल्लेखनीय थे, जो हरिसिंह देव के दरबार में युद्ध और शान्ति मंत्री थे।

विद्यापति ने स्वयं मिथिला के ओइनवार वंश के विभिन्न राजाओं के दरबार में अपनी महत्ती सेवा प्रदान की थी।विद्यापति सर्व प्रथम कीर्ति सिंह के दरबार में काम किया था, जिन्होंने लगभग 1370 से 1380 तक मिथिला पर शासन किया था। इस समय विद्यापति ने 'कीर्त्तिलता' की रचना की, जो पद्य में उनके संरक्षक के लिए एक लंबी स्तुति-कविता थी।  

1402 से 1406 तक मिथिला के राजा शिवसिंह और विद्यापति के बीच घनिष्ठ मित्रता थी। जैसे ही शिवसिंह अपने सिंहासन पर बैठे, उन्होंने विद्यापति को अपना गृह ग्राम बिस्फी प्रदान किया, जो एक ताम्र पत्र पर दर्ज किया गया था। अपने शासनकाल में, शिवसिंह उन्हें "नया जयदेव" कहते थे । महाकवि विद्यापति हिंदी साहित्य की भक्ति परंपरा के प्रमुख कवियों में से एक हैं, जिन्हें मैथिली के सर्वोपरि कवि के रूप में जाना जाता है। वे भगवान शिव के अनन्य भक्त हुआ करते थे। उन्होंने भगवान शिव पर अनेकानेक गीतों की रचना की थी। मान्यताओं के अनुसार, जगतव्यापी भगवान शिव विद्यापति की भक्ति व रचनाओं से बेहद प्रसन्न होकर स्वयं एक दिन वेश बदलकर उनके पास चले आए थे। उनके साथ रहने के लिए भगवान शिव विद्यापति के घर नौकर तक बनने के लिए तैयार थे। उन्होंने अपना नाम उगना बताया था। दरअसल कवि विद्यापति आर्थिक रूप से सबल नहीं थे, इसलिए उन्होंने उगना यानि भगवान शिव को नौकरी पर रखने से पहले मना कर दिया। मगर फिर शिवजी के कहने पर ही सिर्फ दो वक्त के भोजन पर उन्हें रखने के लिए विद्यापति तैयार हो गए थे। ऐसी कथा है कि जब एक दिन विद्यापति राजा के दरबार में जा रहे थे, तो तेज़ गर्मी व धूप से विद्यापति का गला सूखने लगा, मगर आस-पास जल नहीं था। इस पर साथ चल रहे विद्यापति ने उगना (शिवजी) से जल लाने के लिए कहा। तब शिव ने थोड़ा दूर जाकर अपनी जटा खोली व एक लौटा गंगाजल ले आए। जल पीते ही विद्यापति को गंगाजल का स्वाद आया, उन्होंने सोचा कि इस वन के बीच यह जल कहां से आया। इसके बाद उन्हें संदेह हुआ कि कहीं उगना स्वयं भगवान शिव ही तो नहीं हैं। उन्होंने शिव के चरण पकड़ लिए तो शिव को अपने वास्तविक स्वरूप में आना पड़ा। इसके बाद शिवजी ने महाकवि विद्यापति के साथ रहने की इच्छा जताई और उन्हें बताया कि वह उगना बनकर ही साथ रहेंगे। उनके वास्तविक रूप का किसी को पता नहीं चलना चाहिए। इस पर विद्यापति ने भगवान शिव की सारी बातें मान लीं, लेकिन एक दिन उगना द्वारा किसी गलती पर कवि की पत्नी शिवजी को चूल्हे की जलती लकड़ी से पीटने लग गई। उसी समय विद्यापति वहां आ गए और उनके मुख से निकल गया कि यह तो साक्षात भगवान शिव हैं, और तुम इन्हें मार रही हो।  विद्यापति के मुख से जैसे ही यह बात निकली तो भगवान शिव अंर्तध्यान हो गए। इसके बाद अपनी भूल पर पछताते हुए कवि विद्यापति वनों में शिवजी को खोजने लगे। अपने प्रिय भक्त की ऐसी दशा देखकर भगवान उनके समक्ष प्रकट हुए और उन्हें समझाया कि मैं अब तुम्हारे साथ नहीं रह सकता। परंतु उगना के रूप में जो तुम्हारे साथ रहा उसके प्रतीक चिन्ह के रूप में अब मैं शिवलिंग के रूप में तुम्हारे पास विराजमान रहूंगा। उसके बाद से ही उस स्थान पर स्वयंभू शिवलिंग प्रकट हो गया था। मिथिला के समस्तीपुर जिले में बालेश्वर स्थान नाम का एक गांव है जिसे आजकल विद्यापति धाम के नाम से जाना जाता है।  इस स्थान पर मैथिली ,संस्कृत, बंग्ला ,अवधि व अवहट्ट भाषा के विद्वान कवि कोकिल विद्यापति ने समाधि ली थी । यही कभी कोकिल विद्यापति जी के आह्वावन पर मां गंगा स्वयं यहां पर पहुंची थी तथा उन्हें कार्तिक शुक्ल त्रयोदशी को अपने अंक में समेटते हुए लौट गई थीं।  किंवदंतियों के मुताबिक यहां स्वयं भगवान शिव महाकवि की भक्ति भावना से प्रसन्न होकर स्वस्फूर्त विराजमान हुए थे। 

चौदहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में मिथिला के सोदरपुर सरिसब मुल के अवदात कुल में महामहोपाध्याय भवनाथ मिश्र का जन्म हुआ था। आजीवन अयाचना व्रत के पालन के कारण भवनाथ मिश्र अयाची नाम से प्रसिद्ध हुए। इनका मातृकुल और पितृकुल आदिकाल से विद्या व वैभव से प्रशस्त रहा। इनके पितामह विश्वनाथ मिश्र मीमांसा के पंडित व पिता न्याय शास्त्र के उद्भट विद्वान थे। अयाची मिश्र ने किसी गुरुकुल में शिक्षा प्राप्त नहीं की अपितु अपने घर में अपने अग्रज जीवनाथ मिश्र से सभी शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त किया था। अर्जित ज्ञान को उन्होंने अपने शिष्यों व औरस पुत्र शंकर मिश्र को समर्पित किया ।मान्यताओं के मुताबिक भगवान शंकर खुद अयाची मिश्र के पुत्र शंकर मिश्र के रूप में अवतार लिए ।  अयाची मिश्र न्याय दर्शन के विद्वान थे और मुफ्त में शिक्षा देते थे। गुरुदक्षिणा में वे केवल यह कहते कि 10 लोगों को पढ़ाओ। उनके पुत्र शंकर मिश्र ने 19 किताबें लिखीं। शंकर मिश्र ने पांच वर्ष से कम आयु में ही अपूर्व मेघा का परिचय स्वरचित श्लोक द्वारा देकर तत्कालीन दरभंगा महाराज द्वारा सम्मानित हुए थे। यह श्लोक जग प्रसिद्ध है -

बालोहं जगदानन्द नमे बाला सरस्वती।

अपूर्णे पंचमे वर्षे वर्णयामि जगत्त्रयम।

अद्वितीय मेघा प्राप्ति हेतु आज भी यह श्लोक  मिथिला में बच्चों को रटाया जाता है। जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर महावीर स्वामी का जन्म कुंडग्राम में हुआ था। कुंडग्राम मिथिला के वैशाली जिले में स्थित एक सुंदर स्थान है। 527 ईसा पूर्व में रचित प्राकृत ग्रंथ महावीर चरियम में श्रीकुंडग्राम नगर का जिक्र है। 

मिथिला में बुद्ध  का शांति स्थल है।  मिथिला के पश्चिमी भाग रामपुरवा से बुद्ध का मिथिला भ्रमण प्रारंभ हुआ था तथा उनकी कर्मभूमि मिथिला ही रही थी। मिथिला के करियन, महिसी, अंधराठाढ़ी, बेगूसराय, मुजफ्फरपुर, सहरसा, वैशाली आदि जगहों पर बौद्ध प्रतिमाओं का  मिलना इस बात का द्योतक है कि महात्मा बुद्ध को मिथिला से अत्यधिक लगाव था।  पूर्व मध्य काल में मिथिला में बौद्ध धर्म सनातन धर्म में समाहित हो गया  इसीलिए पुराणों के अलावा वर्णरत्नाकर में भी बुद्ध को विष्णु के नवम अवतार मान लिया गया। सनातन धर्म के साथ बौद्ध प्रतिमाओं की पूजा करना इसका प्रमाण है कि मिथिला में धार्मिक सहिष्णुता की परम्परा रही है। 

       मिथिला को इस पृथ्वी का मस्तक कहें तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। संस्कृति में अव्वल होने के कारण भारत की सांस्कृतिक राजधानी होने का गौरव मिथिला को ही प्राप्त है। मिथिला में सांस्कृतिक उपकरणों के अवसरों पर धोती, कुर्ता,दोपट्टा व पाग पहनने का प्रचलन है। यह परिधान विश्व में कहीं और नही है। पाग मैथिल संस्कृति व इस धरा का द्योतक है। 

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