अमेरिका का तालिबान को लेकर दोहरा चेहरा
अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे के बाद अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन ने राष्ट्र के नाम जो संदेश दिया, उसका मुख्य उद्देश्य दुनिया को यह बताना था कि उन्होंने अफगानिस्तान से निकलना क्यों जरुरी समझा। उन्होंने अमेरिका की इस फौजी निकासी का मूल निर्णय करनेवाले डोनाल्ड ट्रंप को कोई श्रेय नहीं दिया। उन्होंने इस भयंकर तथ्य की भी कोई जिम्मेदारी नहीं ली कि वे अफगानिस्तान को राम भरोसे छोड़कर क्यों भाग खड़े हुए ? जैसे 1975 में अमेरिका दक्षिण वियतनाम को उत्तर वियतनाम के भरोसे छोड़कर भाग आया था, वैसे ही उसने अफगानिस्तान को तालिबान के भरोसे छोड़ दिया। वैसे अमेरिका ने ही मुजाहिदीन और तालिबान को पिछले 40 साल में खड़ा किया था। ज्यों ही काबुल में बबरक कारमल की सरकार बनी, रूसियों को टक्कर देने के लिए अमेरिका ने पाकिस्तान को उकसाया और पाकिस्तान ने अफगान बागियों को शरण दी। पाकिस्तान के जरिए अमेरिका ने पेशावर, मिरान्शाह और क्वेटा में टिके पहले मुजाहिदीन और फिर तालिबान को हथियार और डाॅलर दिए।
अगर बाइडन प्रशासन और तालिबान में पहले से सांठगांठ नहीं होती तो क्या अमेरिकी वापसी इतनी शांतिपूर्ण ढंग से हो सकती थी ? अभी तक किसी भी अमेरिकी पर या अमेरिकी दूतावास पर कोई हमला नहीं हुआ है। कई दूतावास बंद हो गए हैं लेकिन क्या वजह है कि अमेरिकी दूतावास काबुल हवाई अड्डे पर खुल गया है ? कोई तो वजह है, जिसके चलते 5-6 हजार अमेरिकी सैनिक काबुल पहुंच गए हैं और उन पर एक भी गोली तक नहीं चली है? क्या वजह है कि राष्ट्रपति गनी ओमान होते हुए अमेरिका पहुंच रहे हैं ? क्या वजह है कि राष्ट्रपति बाइडन ने अपने संबोधन में तालिबान की ज़रा भी भर्त्सना नहीं की है। उल्टे, वे इस बात का श्रेय ले रहे हैं कि उन्होंने अमेरिकी फौजियों की जानें और अमेरिकी डाॅलर बचा लिये हैं। बाइडन प्रशासन ने बड़ी चतुराई से गनी सरकार और तालिबान, दोनों को साधकर अपना मतलब सिद्ध किया है। अब दुनिया के देश अमेरिका को कोस रहे हैं तो कोसते रहें ! दुनिया अमेरिका के लिए चाहे कहती रहे कि ‘बड़े बेआबरु होकर तेरे कूचे से हम निकले।’
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