कोरोना और विश्व
अमेरिका यदि अपना पेटेंट छोड़ने को तैयार है तो अन्य राष्ट्र भी उसका अनुसरण क्यों नहीं करेंगे? अब ब्रिटेन और फ्रांस– जैसे राष्ट्रों ने भी भारत के समर्थन की इच्छा जाहिर की है। क्यों की है ? क्योंकि अब दुनिया को पता चल गया है कि कोरोना की महामारी इतनी तेजी से फैल रही है कि मालदार देशों की आधा दर्जन कंपनियां 6-7 अरब टीके पैदा नहीं कर पाएंगी। अब केनाडा, बांग्लादेश और दक्षिण कोरिया- जैसे लगभग आधा दर्जन देश ऐसे हैं, जो कोरोना का टीका बना लेंगे। लेकिन यह जरुरी है कि उन्हें पेटेंट का उल्लंघन न करना पड़े। विश्व स्वास्थ्य संगठन के 164 सदस्य-देशों में से अगर एक देश ने भी आपत्ति कर दी तो यह अनुमति उन्हें नहीं मिलेगी। जर्मनी आपत्ति कर रहा है। उसका तर्क यह है कि दुनिया की कई कंपनियां ये टीके नहीं बना पाएंगी, क्योंकि उनके पास इसका कच्चा माल नहीं होगा, तकनीक नहीं होगी और कारखाने नहीं होंगे। डर यही है कि अधकचरे और नकली टीकों से दुनिया के बाजार भर जाएंगे और मरनेवाले मरीजों की संख्या दिन दूनी, रात चौगुनी हो जाएगी। यह तर्क निराधार नहीं है लेकिन जिस देश की कंपनी भी ये टीके बनाएगी, वह मूल कंपनी के निर्देशन में बनाएगी और उस देश की सरकार की कड़ी निगरानी में बनाएगी। उन टीकों की कीमत भी इतनी कम होगी कि गरीब देश भी अपने नागरिकों को उन्हें मुफ्त में बांट सकेंगे। इस समय उन्नत देशों से आशा की जाती है कि वे दरियादिली दिखाएंगे। वे अपनी कंपनियों से पूछें कि क्या कोरोना से उन्होंने कोई सबक नहीं सीखा? अपने एकाधिकार से वे पैसे का अंबार जरुर लगा लें लेकिन ऊपर से बुलावा आ गया तो वे उस पैसे का क्या करेंगे ? वे जरा भारत का देखें। भारत ने कई जरुरतमंद देशों को करोड़ों टीके मुफ्त में बांट दिए या नहीं ? कोरोना की इस महामारी का महासंदेश यही है कि आप सारे विश्व को अपना कुटुम्ब समझकर काम करें। वसुधेवकुटुम्बकम् या विश्व-परिवार !
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