साहित्य
गजल
दोसरकें बात पर नै उछल,
एको डेग अपनासँ तूँ चल।
अपने वुद्धि काज देतौ रे,
चाहे छी मूर्ख चाहे पढ़ल।
लोहा सेहो लीबि जाइ छै,
बोली जे रहतौ मीठ सरल।
संघर्षे कऽ नाम छै जिनगी,
घर बैसि भेटलै ककरा फल।
शमशान रहल हेतै कहियो,
जै ठां देखै छी आइ महल।
ओकर चुप्पी बुझाइ नाटक,
ओ जे बाजै त लागै गजल।
दुनियासँ भागब किए कुन्दन,
दलदलमे रहि खिलै छै कमल।
लेखक - कुन्दन कुमार कर्ण
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